मध्य प्रदेश हाईकोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: ‘गरीबी कोई अपराध नहीं’, कर्ज न चुकाने पर जेल नहीं भेजा जा सकता

वरिष्ठ अधिवक्ता भरत सेन
मध्य प्रदेश हाईकोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: ‘गरीबी कोई अपराध नहीं’, कर्ज न चुकाने पर जेल नहीं भेजा जा सकता
**जबलपुर, 14 फरवरी 2024 (विस्तृत रिपोर्ट)**
*(संपादकीय डेस्क द्वारा संकलित, मूल फैसला मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय से)*
मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट कर दिया है कि कर्ज चुकाने में असमर्थता के कारण किसी व्यक्ति को जेल भेजना कानून का घोर उल्लंघन है। अदालत ने जोर देकर कहा कि “गरीबी कोई अपराध नहीं है” और यदि किसी कर्जदार के पास भुगतान का कोई स्रोत नहीं है, तो उसे सिविल जेल में डालने का आदेश नहीं दिया जा सकता। यह फैसला न केवल कर्जदारों के अधिकारों की रक्षा करता है, बल्कि निचली अदालतों को प्रक्रियात्मक अनुशासन सिखाता है। इस निर्णय ने कर्ज वसूली की प्रक्रिया में मानवीय दृष्टिकोण को मजबूत किया है, जो आज भी प्रासंगिक बना हुआ है।
#### मामले की पृष्ठभूमि: एक व्यापारी की मजबूरी
यह मामला टीकमगढ़ जिले के एक छोटे व्यापारी सदकिक अकरम (याचिकाकर्ता) से जुड़ा है, जिन्होंने एक व्यवसायिक ऋण लिया था। ऋणदाता कुलदीप (प्रतिवादी) ने जब कर्ज वसूली के लिए स्थानीय सिविल कोर्ट में मुकदमा दायर किया, तो अदालत ने सदकिक के खिलाफ धन डिक्री (मौद्रिक फैसला) पारित किया। सदकिक ने दावा किया कि उनका व्यवसाय पूरी तरह चौपट हो चुका है और अब वे केवल नौकरी से मिलने वाले वेतन पर परिवार का भरण-पोषण कर रहे हैं। वे किश्तों में कर्ज चुकाने को तैयार थे, लेकिन उनके पास कोई संपत्ति या अतिरिक्त आय का स्रोत नहीं था।
प्रतिवादी ने आरोप लगाया कि सदकिक ने डिक्री पारित होने से पहले अपनी संपत्ति पत्नी और बेटों के नाम ट्रांसफर कर दी थी। सदकिक ने इसका खंडन किया और कहा कि उनके पास ट्रांसफर करने लायक कोई संपत्ति ही नहीं थी। निचली अदालत (तृतीय सिविल न्यायाधीश वर्ग-1, टीकमगढ़) ने बिना उचित जांच के एक साथ कारण बताओ नोटिस जारी किया और सदकिक को सिविल जेल भेजने का आदेश दे दिया। अदालत ने यह भी नहीं जांचा कि क्या सदकिक ने जानबूझकर भुगतान से इनकार किया है या उनकी असमर्थता वास्तविक है। इस आदेश के खिलाफ सदकिक ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय (जबलपुर बेंच) में याचिका दायर की।
#### उच्च न्यायालय की सुनवाई: न्यायमूर्ति की सख्त टिप्पणियां
मामले की सुनवाई उच्च न्यायालय की एकलपीठ ने की, जिसकी अध्यक्षता न्यायमूर्ति द्वारका धीश बंसल ने की। याचिकाकर्ता की ओर से वकील श्रीकांत श्रीवास्तव ने तर्क दिया कि निचली अदालत ने सिविल प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) की अनदेखी की है, जबकि प्रतिवादी की ओर से डी.सी. मलिक ने संपत्ति ट्रांसफर के आरोपों पर जोर दिया।
न्यायमूर्ति बंसल ने रिकॉर्ड का गहन विश्लेषण किया और निचली अदालत की कमियों पर सख्ती से निशाना साधा। उन्होंने कहा, “गरीबी कोई अपराध नहीं है। जिसके पास कर्ज अदायगी के लिए आय का कोई स्रोत न हो, उसे जेल भेजने का आदेश पारित कर देना कानून का उल्लंघन है।” अदालत ने स्पष्ट किया कि सिविल जेल केवल अंतिम विकल्प होनी चाहिए, जब यह सिद्ध हो जाए कि कर्जदार के पास पर्याप्त साधन हैं फिर भी वह जानबूझकर भुगतान से बच रहा है। इस मामले में, निचली अदालत ने नोटिस जारी करने के बाद सदकिक को सुनवाई का उचित अवसर नहीं दिया, सबूतों की गंभीर जांच नहीं की और जेल भेजने के कारणों को दर्ज नहीं किया।
न्यायमूर्ति ने नोट किया कि निचली अदालत के ही आदेश में विसंगति थी—एक ओर यह दर्ज किया गया कि सदकिक के पास कोई संपत्ति नहीं है, दूसरी ओर बिना स्पष्टीकरण के जेल का आदेश दे दिया गया। अदालत ने इसे “जल्दबाजी” करार दिया और निचली अदालत के आदेश को पूरी तरह रद्द कर दिया। साथ ही, मामले को नए सिरे से सुनवाई के लिए लौटा दिया, जिसमें उचित प्रक्रिया का पालन अनिवार्य किया गया।
#### कानूनी आधार: सीपीसी और सुप्रीम कोर्ट का हवाला
फैसले का आधार सिविल प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) की प्रमुख धाराएं और नियम हैं:
– **धारा 51**: कर्जदार को सिविल जेल भेजने के लिए शर्तें पूरी करनी होंगी, जैसे जानबूझकर भुगतान न करना।
– **आदेश 21 नियम 37**: निष्पादन के लिए नोटिस जारी करने की प्रक्रिया।
– **आदेश 21 नियम 40(1)**: नोटिस के बाद डिक्री धारक और कर्जदार दोनों को सुनवाई का अवसर देना अनिवार्य।
अदालत ने सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले **जॉली जॉर्ज वर्गीस बनाम बैंक ऑफ कोचीन (1980)** का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था: “दरिद्र नारायण की भूमि में गरीबी कोई अपराध नहीं है। पर्याप्त साधनों के बावजूद जानबूझकर भुगतान न करने के न्यूनतम प्रमाण के अभाव में कर्ज वसूली के लिए जेल भेजना कानून का बड़ा उल्लंघन है।” यह प्रेसिडेंट आज भी कर्ज वसूली मामलों में मार्गदर्शक है।
#### व्यापक प्रभाव: कर्जदारों के लिए राहत, अदालतों के लिए सबक
यह फैसला मध्य प्रदेश सहित पूरे देश के कर्जदारों के लिए एक बड़ी राहत है, खासकर छोटे व्यापारियों, किसानों और निम्न आय वर्ग के लोगों के लिए। भारत में लाखों लोग व्यवसायिक असफलता या आर्थिक संकट के कारण कर्ज के जाल में फंसे हैं। उच्च न्यायालय का यह निर्देश सुनिश्चित करता है कि कर्ज वसूली प्रक्रिया में मनमानी न हो और कर्जदारों को उनके वित्तीय हालात के आधार पर न्याय मिले।
वकीलों और कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि यह निर्णय निचली अदालतों पर दबाव डालेगा कि वे जांच को गंभीरता से लें। उदाहरण के लिए, संपत्ति ट्रांसफर के आरोपों की सत्यता जांचना, कर्जदार को स्पष्टिकरण का मौका देना और जेल आदेश के कारण दर्ज करना अब अनिवार्य होगा। इससे कर्ज वसूली में पारदर्शिता बढ़ेगी और गरीबों को अनावश्यक जेल की सजा से बचाव होगा।
हालांकि, ऋणदाताओं की चिंता भी वैध है—वे तर्क देते हैं कि बार-बार ऐसी राहत से वसूली कठिन हो जाती है। लेकिन अदालत ने संतुलन बनाते हुए कहा कि यदि जानबूझकर धोखा हो, तो सख्त कार्रवाई हो सकती है।
#### निष्कर्ष: न्याय की दिशा में एक कदम
मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय का यह फैसला (केस नंबर: विविध याचिका संख्या 7452/2023) न केवल सदकिक अकरम जैसे व्यक्तियों को न्याय दिलाता है, बल्कि पूरे सिस्टम को मानवीय बनाता है। आज के दौर में, जब आर्थिक असमानता चरम पर है, ऐसे फैसले जरूरी हैं। सरकार और बैंकों को भी इस दिशा में नीतियां बनानी चाहिए, ताकि कर्ज माफी या पुनर्गठन जैसे विकल्प मजबूत हों। गरीबी को अपराध मानने की बजाय, समाज को समावेशी विकास पर जोर देना होगा।
*(संदर्भ: लाइव लॉ (एमपी) 31/2024; दैनिक जागरण, 15 फरवरी 2024)