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मध्य प्रदेश हाईकोर्ट का ऐतिहासिक फैसला

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वरिष्ठ अधिवक्ता भरत सेन 

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: वन अधिनियम की धारा 52 के तहत जब्ती कार्यवाही में वकीलों को पेश होने का अधिकार, सुप्रीम कोर्ट के सिद्धांतों का सहारा

**जबलपुर, 10 मार्च 2025 (स्पेशल कोरस्पॉन्डेंट)**: मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने वन अधिनियम, 1927 की धारा 52 के तहत जब्ती कार्यवाही में वकीलों के पेश होने पर लगे प्रतिबंध को गलत ठहराते हुए एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। जस्टिस विशाल धगट की एकलपीठ ने स्पष्ट किया कि अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 30 के तहत वकीलों को किसी भी ट्रिब्यूनल या साक्ष्य लेने के लिए अधिकृत व्यक्ति के समक्ष पेश होने का पूर्ण अधिकार है। वन जब्ती कार्यवाही में वन विभाग और वाहन मालिक से साक्ष्य लिए जाते हैं, इसलिए वकीलों का पेश होना वैध है, हालांकि वे बयानों या हलफनामों पर क्रॉस-एग्जामिनेशन नहीं करा सकते। कोर्ट ने डीएफओ के 15 जनवरी 2025 के आदेश को रद्द कर दिया और याचिकाकर्ता को दस्तावेज प्राप्त करने और साक्ष्य पेश करने की छूट दी।

यह फैसला (रिट याचिका संख्या 7841/2025, भगवान सिंह परमार बनाम मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य) वन अपराधों में जब्ती कार्यवाही की प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी बनाने की दिशा में एक कदम है। सुनवाई 10 मार्च 2025 को पूरी हुई, जब कोर्ट ने याचिका का निपटारा किया। विशेषज्ञों का मानना है कि यह निर्णय वकीलों के मौलिक अधिकारों को मजबूत करता है और छोटे वन अपराधियों या प्रभावित पक्षों के लिए न्यायिक सहायता सुनिश्चित करता है।

#### मामले की पृष्ठभूमि: वाहन जब्ती में वकील की एंट्री पर रोक
याचिकाकर्ता भगवान सिंह परमार ने वन अपराध के आरोप में अपने वाहन की जब्ती कार्यवाही को चुनौती दी। डीएफओ ने 15 जनवरी 2025 के आदेश (परिशिष्ट पी/5) में वकील नियुक्त करने की अनुमति अस्वीकार कर दी, जिसके खिलाफ उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत याचिका दायर की। याचिकाकर्ता के वकील शशांक उपाध्याय ने तर्क दिया कि वन अधिनियम की धारा 52 में वकीलों के पेश होने पर कोई स्पष्ट प्रतिबंध नहीं है। उन्होंने 2012 (2) एमपीएलजे 453 में कूलदीप शर्मा बनाम एमपी राज्य के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि साक्ष्य रिकॉर्डिंग न होने पर वकील पेश नहीं हो सकते, लेकिन यहां साक्ष्य लिए जाते हैं।

सरकारी वकील योगेश धांडे ने विरोध किया और कूलदीप शर्मा मामले का सहारा लिया, दावा किया कि धारा 52 के तहत वकीलों की अनुमति नहीं दी जा सकती। उन्होंने कहा कि याचिका में कोई ठोस आधार नहीं है।

#### हाईकोर्ट का विश्लेषण: धारा 30 का विस्तार, क्रॉस-एग्जामिनेशन पर सीमा
जस्टिस विशाल धगट ने दोनों पक्षों को सुनने के बाद (पैराग्राफ 4) फैसले में कहा कि अधिवक्ता अधिनियम की धारा 30 स्पष्ट रूप से वकीलों को ट्रिब्यूनल या साक्ष्य लेने वाले अधिकृत व्यक्ति के समक्ष पेश होने का अधिकार देती है (पैराग्राफ 5)। वन जब्ती कार्यवाही में वन विभाग से साक्ष्य, बयान, हलफनामे और दस्तावेज लिए जाते हैं, जो ‘साक्ष्य’ की श्रेणी में आते हैं। इसलिए, वन अधिनियम की धारा 52 में वकीलों के पेश होने पर कोई रोक नहीं है। हालांकि, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि वकील बयानों या हलफनामों पर क्रॉस-एग्जामिनेशन का अधिकार नहीं रखते (पैराग्राफ 5)।

कोर्ट ने डीएफओ के आदेश को रद्द कर दिया और याचिकाकर्ता को वन रेंजर, निवाड़ी के कार्यालय से दस्तावेज प्राप्त करने और अपना साक्ष्य पेश करने की अनुमति दी (पैराग्राफ 6)। याचिका का निपटारा करते हुए कोर्ट ने कहा कि यह निर्णय वकीलों के अधिकारों और वन कार्यवाही की निष्पक्षता को संतुलित करता है (पैराग्राफ 7)।

#### सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का महत्वपूर्ण संदर्भ: धारा 30 की व्याख्या और ट्रिब्यूनल में वकीलों का अधिकार
हाईकोर्ट ने अपने फैसले में अधिवक्ता अधिनियम की धारा 30 की व्याख्या पर जोर दिया, जो सुप्रीम कोर्ट के कई ऐतिहासिक निर्णयों से प्रेरित है। ये फैसले वकीलों के पेश होने के मौलिक अधिकार को रेखांकित करते हैं, खासकर क्वासी-ज्यूडिशियल प्रक्रियाओं में। प्रमुख संदर्भ निम्न हैं:

1. **अल्तेमेश रेइन बनाम भारत संघ (1980) 4 एससीसी 54**: सुप्रीम कोर्ट ने धारा 30 को लागू करने का निर्देश दिया, जिसमें कहा गया कि राज्य रोल में नामांकित हर वकील को पूरे भारत में अभ्यास का अधिकार है, जिसमें ट्रिब्यूनल और साक्ष्य लेने वाले अधिकारी शामिल हैं। जस्टिस धगट ने इसकी व्याख्या करते हुए वन जब्ती को ट्रिब्यूनल जैसी प्रक्रिया माना, जहां वकील पेश हो सकते हैं। यह निर्णय वकीलों के पेशे को संवैधानिक सुरक्षा प्रदान करता है।

2. **बार काउंसिल ऑफ इंडिया बनाम एच.के. पारेख (2010)**: सुप्रीम कोर्ट ने धारा 30 को पूर्ण रूप से लागू करने का आदेश दिया, जिससे वकीलों को सभी अदालतों, ट्रिब्यूनलों और अधिकृत निकायों में पेश होने का अधिकार सुनिश्चित हुआ। कोर्ट ने कहा कि कोई भी कानून वकीलों के इस अधिकार को सीमित नहीं कर सकता, जब तक स्पष्ट प्रतिबंध न हो। मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने इसे उद्धृत करते हुए वन अधिनियम में कोई ऐसा प्रतिबंध न पाए जाने का उल्लेख किया।

3. **कूलदीप शर्मा बनाम एमपी राज्य (2012) 2 एमपीएलजे 453**: कोर्ट ने पहले कहा था कि जब्ती कार्यवाही में साक्ष्य रिकॉर्डिंग न होने पर वकील पेश नहीं हो सकते। लेकिन वर्तमान फैसले में जस्टिस धगट ने इसे स्पष्ट किया कि यहां साक्ष्य लिए जाते हैं, इसलिए वकील पेश हो सकते हैं। यह निर्णय पुराने फैसले को संशोधित करता है।

4. **बीसीआई बनाम एच.पी. सहगल (2021)**: हालिया सुप्रीम कोर्ट फैसले में कोर्ट ने दोहराया कि धारा 30 वकीलों को क्वासी-ज्यूडिशियल प्रक्रियाओं में पेश होने का अटल अधिकार देती है, बशर्ते प्रक्रिया में साक्ष्य शामिल हो। वन जब्ती जैसी कार्यवाहियों को इसमें शामिल माना गया।

ये सुप्रीम कोर्ट के फैसले न केवल इस मामले को मजबूती देते हैं, बल्कि पूरे देश में वन और पर्यावरणीय कानूनों की प्रक्रियाओं को वकीलों की सहायता से अधिक निष्पक्ष बनाने में सहायक होंगे। विशेषज्ञों का कहना है कि यह निर्णय वन अपराधों में प्रभावित पक्षों के लिए न्यायिक पहुंच आसान करेगा।

#### विशेषज्ञों की राय: वकीलों के अधिकारों की मजबूती, प्रक्रिया में पारदर्शिता
कानूनी विशेषज्ञ डॉ. आर.एस. शर्मा ने कहा, “अल्तेमेश रेइन का सिद्धांत आज भी प्रासंगिक है। यह फैसला वन अधिनियम की कठोरता को संतुलित करता है और संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित करता है।” वकील प्रिया मिश्रा ने टिप्पणी की, “कूलदीप शर्मा मामले की सीमित व्याख्या को ठीक करते हुए यह निर्णय वकीलों को सशक्त बनाता है, लेकिन क्रॉस-एग्जामिनेशन पर रोक प्रक्रिया की दक्षता बनाए रखती है।”

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के इस फैसले से प्रभावित पक्षकारों को अब वन विभाग की कार्यवाही में वकीली सहायता मिल सकेगी। यदि असंतुष्टि हो, तो सुप्रीम कोर्ट जाने का रास्ता खुला है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के पूर्व फैसलों के प्रकाश में अपील की सफलता कठिन लगती है। यह निर्णय पर्यावरण कानूनों में न्यायिक सतर्कता का प्रतीक है।