
लेखक: भारत सेन, अधिवक्ता, जिला न्यायालय बैतूल
*नई दिल्ली, 18 नवंबर 2025*: सुप्रीम कोर्ट ने मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 से जुड़े एक महत्वपूर्ण मामले में फैसला सुनाया है, जिसमें व्यावसायिक ऋण समझौते में 24% वार्षिक ब्याज दर को वैध ठहराते हुए मध्यस्थता पुरस्कार (arbitral award) को बरकरार रखा है। जस्टिस जे.बी. पार्डीवाला और जस्टिस के.वी. विश्वनाथन की डिवीजन बेंच ने कहा कि शुद्ध व्यावसायिक लेन-देन में ऊंची ब्याज दर अपने आप में भारत की सार्वजनिक नीति (public policy) का उल्लंघन नहीं करती, जब तक कि वह इतनी अधिक न हो कि कोर्ट की अंतरात्मा को झकझोर दे।
यह मामला *श्री लक्ष्मी होटल प्राइवेट लिमिटेड और अन्य बनाम श्रीराम सिटी यूनियन फाइनेंस लिमिटेड और अन्य* (सिविल अपील नंबर 13785 ऑफ 2025, जो एसएलपी (सिविल) नंबर 12300 ऑफ 2020 से उत्पन्न हुई) से संबंधित है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि पुरस्कार के बाद का ब्याज (post-award interest) अनिवार्य है और यदि मध्यस्थ न्यायाधिकरण द्वारा दर निर्धारित नहीं की गई तो 18% वार्षिक की वैधानिक दर लागू होगी।
#### मामले की पृष्ठभूमि और तथ्य
यह विवाद साल 2006 से शुरू हुआ था। श्री लक्ष्मी होटल प्राइवेट लिमिटेड (उधारकर्ता कंपनी) ने अपनी बैंक देनदारियों को चुकाने के लिए श्रीराम सिटी यूनियन फाइनेंस लिमिटेड (एक गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनी – NBFC) से दो ब्रिजिंग लोन (अस्थायी ऋण) लिए थे। पहला ऋण 1.5 करोड़ रुपये का और दूसरा 7.25 लाख रुपये का था, कुल लगभग 1.57 करोड़ रुपये।
ऋण समझौते में 24% वार्षिक ब्याज दर तय की गई थी। यह ऊंची दर उधारकर्ता कंपनी के पिछले डिफॉल्ट इतिहास और व्यावसायिक जोखिम को देखते हुए तय की गई थी। कंपनी ऋण चुकाने में चूक गई, जिसके बाद ऋणदाता ने 2009 में मध्यस्थता कार्यवाही शुरू की।
साल 2014 में मध्यस्थ न्यायाधिकरण ने पुरस्कार सुनाया, जिसमें उधारकर्ता को 2.21 करोड़ रुपये की प्रधान राशि के साथ पुरस्कार की तारीख तक 24% प्री- अवार्ड ब्याज और उसके बाद भी भुगतान तक 24% पोस्ट-अवार्ड ब्याज देने का निर्देश दिया गया।
उधारकर्ता कंपनी ने इस पुरस्कार को मध्यस्थता अधिनियम की धारा 34 के तहत चुनौती दी, मुख्य रूप से यह तर्क देते हुए कि 24% ब्याज दर अत्यधिक है, यह भारत की सार्वजनिक नीति के खिलाफ है और महाजनी ऋण अधिनियम, 1918 (Usurious Loans Act) का उल्लंघन करती है। सिंगल जज और फिर डिवीजन बेंच ने धारा 37 के तहत अपील में चुनौती खारिज कर दी। इस दौरान कंपनी के खिलाफ दिवाला और परिसमापन कार्यवाही भी शुरू हो गई थी। अंततः मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा।
#### सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख निर्णय और कानूनी बिंदु
1. *ब्याज दर और सार्वजनिक नीति*: कोर्ट ने कहा कि शुद्ध व्यावसायिक लेन-देन में ऊंची ब्याज दर (यहां 24%) अपने आप में ‘भारतीय कानून की मूलभूत नीति’ या ‘नैतिकता और न्याय की बुनियादी अवधारणाओं’ का उल्लंघन नहीं करती। हस्तक्षेप तभी оправदार है जब दर इतनी अनुचित हो कि कोर्ट की अंतरात्मा को आघात पहुंचे। व्यावसायिक जोखिम को ध्यान में रखते हुए पार्टियों की स्वायत्तता (party autonomy) का सम्मान किया जाना चाहिए।
2. *पोस्ट-अवार्ड ब्याज अनिवार्य*: मध्यस्थता अधिनियम की धारा 31(7)(b) (2015 संशोधन से पहले) के तहत पुरस्कार के बाद ब्याज देना अनिवार्य है। मध्यस्थ न्यायाधिकरण को केवल दर निर्धारित करने का विवेक है; यदि दर नहीं तय की गई तो 18% वार्षिक की वैधानिक दर लागू होगी। पार्टियां समझौते से इस प्रावधान से छूट नहीं ले सकतीं, क्योंकि इसका उद्देश्य पुरस्कार-ऋणी को भुगतान में देरी करने से रोकना है।
3. *प्री-अवार्ड ब्याज*: धारा 31(7)(a) के तहत पुरस्कार से पहले का ब्याज पार्टियों के समझौते के अधीन है। यदि समझौते में ब्याज के बारे में प्रावधान है तो मध्यस्थ का विवेक सीमित हो जाता है।
4. *महाजनी ऋण अधिनियम की प्रयोज्यता*: कोर्ट ने स्पष्ट किया कि महाजनी ऋण अधिनियम, 1918 जैसे पुराने कानूनों का सहारा लेकर मध्यस्थता पुरस्कार को धारा 34/37 में चुनौती नहीं दी जा सकती। RBI द्वारा विनियमित NBFC पर ये कानून लागू नहीं होते और मध्यस्थता अधिनियम की पूर्ण शक्तियों के सामने ये पीछे रहते हैं।
5. *हस्तक्षेप की सीमा*: धारा 34(2A) के तहत साक्ष्य की पुनर्मूल्यांकन (re-appreciation of evidence) निषिद्ध है। समवर्ती निष्कर्षों (concurrent findings) में हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता।
#### फैसले के निहितार्थ
यह फैसला व्यावसायिक ऋणदाताओं, विशेषकर NBFC के लिए राहत भरा है, क्योंकि यह ऊंची ब्याज दरों को जोखिम प्रबंधन के हिस्से के रूप में मान्यता देता है। मध्यस्थता की प्रक्रिया में न्यायिक हस्तक्षेप को और सीमित करता है, जिससे भारत को मध्यस्थता-अनुकूल क्षेत्र बनाने की दिशा में मदद मिलेगी। साथ ही, पुरस्कार के बाद ब्याज को अनिवार्य बनाकर देनदारों को शीघ्र भुगतान के लिए प्रोत्साहित करता है।
कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि यह निर्णय व्यावसायिक लेन-देन में पार्टियों की स्वतंत्रता को मजबूत करता है और पुराने महाजनी कानूनों के दुरुपयोग को रोकता है।