यह चैक बाउंस कानून की अदालत हैं या ऋण वसूली प्राधिकरण हैं ?
वरिष्ठ अधिवक्ता श्री भरत सेन
- यह चैक बाउंस कानून की अदालत हैं या ऋण वसूली प्राधिकरण हैं ?
- वित्तीय संस्थाओं के लिए ऋण वसूली अधिकरण की भूमिका में अदालत।
बैतूल। मप्र राज्य। भारत सरकार ने वित्तीय संस्थाओं की ऋण वूसली के लिए पृथक से कानून बनाया हैं। सहकारी संस्थाओं की वसूली के लिए सहकारिता कानून बना हैं और अधिकरण गठित किए गए हैं। बैंक, फायनेंस कंपनी और कापरेटिव सोसाईटी बकाया ऋण की वसूली के लिए परक्राम्य लिखत अधिनियम 1881 की प्रयोग एक शस्त्र के रूप में कर रही हैं। सरकारी योजनाओं में ऋण लेकर स्वरोजगार करने वाले वाले उद्यमियों पर जिला न्यायालय में चैक बांउस के मुकदमें बड़ी संख्या में चल रहे हैं।
भारत सरकार की विभिन्न सरकारी योजनाओं को विफल करने के लिए बैंक अधिकारियों ने कसम खा कर रखी हैं। सरकारी योजनओं में बैंक अधिकारी ऋण देने से पहले अपनी वसूली करते हैं, कमशीन खोरी करते हैं। कुछ मामलों में फर्जी ऋण स्वीकृत हो जाता हैं। बैंक संपूर्ण ऋण राशि हितग्राही तक पहुंचने ही नहीं देते हैं। इसके लिए बैंक अधिकारी तरह तरह की तिकड़म अपनाते हैं। मजबूर होकर हितग्राही को बैंक अधिकारी की बात मानना पड़ता हैं, भ्रष्टाचार और कमीशन खोरी का शिकार बनना पड़ता हैं, बाजार से उंची ब्याज दर पर ऋण लेने के लिए मजबूर होना पड़ता हैं। सरकार का ऋण देने का उद्देश्य विफल हो जाता हैं। एक बैंक अधिकारी ऋण बांट कर अपनी वसूली करके चला जाता हैं दूसरा अधिकारी वसूली करने चला आता हैं।
भारत सरकार की प्रधान मंत्री मुदा योजना में सरकारी बैंक ऋण देती हैं जिसमें बैंक अधिकारी अपना मुनाफा खोज निकालते हैं। बैंक अधिकारी के पसंद के उद्योग या कंपनी या फर्म से हितग्राही को माल या मशीन खरीदना पड़ता हैं कुछ मामलों में संस्थाए कागजी होती हैं जिनका भौतिक अस्तित्व नहीं होता हैं। बैंक अधिकारी संपूर्ण ऋण राशि देते नहीं हैं, ऋण राशि का एक अंश फिक्स डीपोजिट कर देते हैं। बैंक अधिकारी संपूर्ण ऋण एक मुश्त देने के बजाए किश्तो में ऋण जारी करते हैं, कुछ मामलों में अंततः संपूर्ण ऋण राशि देते ही नहीं हैं। ऋण स्वीकृत करते समय बैंक में खाता खुलवाया जाता हैं, चैक बुक जारी होती हैं संपूर्ण चैक बुक पर ऋणी के हस्ताक्षर करके रख लिए जाते हैं जिसे ऋण राशि के सुरक्षा बतौर जारी किए गए चैक कहते हैं।
बैंकिंग व्यवस्था में फैले भ्रष्टाचार के कारण प्रधान मंत्री मुदा योजना के लाभर्थी अदालत में चैक बाउंस कानून धारा 138 के मुकदमों का सामना कर रहे हैं, कारण व्यापार विफल हो चुका हैं। अतिक्ति वित्तीय सहायता की जरूरत हैं लेकिन बैंक वित्तीय सहायता देने के बजाए एक मुश्त संपूर्ण ऋण राशि की मांग कर रहे हैं। प्रधान मंत्री मुद्रा योजना में ऋण स्वीकृत हुआ हैं लेकिन संपूर्ण ऋण राशि एकमुश्त ऋणी व्यक्ति को नहीं मिलने के कारण व्यापार विफल हुआ हैं, व्यापार बंद हो चुका हैं।
भारत की सुप्रीम कोर्ट के फैसलो के कारण परक्राम्य लिखत अधिनियम 1881 बेहद पेचीदा कानून बन चुका हैं। हस्ताक्षर युक्त चैक पर कोई भी व्यक्ति या चैक धारक नाम, रकम और दिनांक लिखकर रिक्त प्रविष्टियों को पूर्ण कर सकता हैं। चैक बांउस कानून की धारा 20 का लाभ वित्तीय संस्थाए उठती हैं और पुराने चैको का उपयोग असमय कभी भी करती हैं। विभिन्न कारणों से चैक अनादरित होता हैं और मामला अदालत में आ जाता हैं, परिवाद पंजीकृत हो जाता हैं। वित्तीय संस्थाओं का संदेश स्पष्ट हैं बैंक का पैसा अदा करों या जेल चले जाओं। इसके बाद भी वित्तीय संस्थाओं का पैसा तो अदा करना हैं।
न्यायालय ऋण वसूली अधिकरण की भूमिका अदा करती हैं क्योंकि परिवाद सरकारी बैंक एवं वित्तीय संस्थओं या फिर कापरेटिव सोसाईटी की ओर से पेश किए गए हैं। न्यायालय में वित्तीय संस्थाओं के परिवाद में मौजूद वैधानिक दोष, लोप एवं विरोधाभाष को दरकिनार कर दोषसिद्धि कर दी जाती हैं। एक आम धारणा बन गई हैं कि चैक किसी भी कारण से बांउस हुआ हैं धारा 138 का अपराध गठित होता हैं। कुछ मामलों में आपसी समझौता हो जाता हैं और धनराशि चैक राशि ब्याज सहित अदा करने में विफल दोषसिद्धि का शिकार हो जाता हैं।
जिला न्यायालय स्तर पर अपील में प्रतिकर राशि का 20 प्रतिशत राशि जमा करना अनिवार्य हैं तो अदालते जमानत की शर्त में 20 प्रतिशत राशि जमा करने का आदेश कर देती हैं। अपीलीय न्यायालय के आदेश का पालन करने में विफल आरोपी जमानत नहीं ले पाता हैं। हाई कोर्ट में पुनरीक्षण याचिका दाखिल करना आरोपी की एक मजबूरी बन जाती हैं। हाई कोर्ट से यथासमय स्थगन मिला तो ठीक हैं, यथासमय सुनवाई हुई तो सब कुछ ठीक हैं।
विधि, न्याय एवं मानवाधिकार का सवाल व्यवस्था पर खड़ा होता हैं। परक्राम्य लिखत अधिनियम 1881 का लक्ष्य आर्थिक रूप से कमजोर, पीड़ित एवं शोषित व्यक्ति की दोषसिद्धि कर कारावास में डालना हैं ? सरकारी योजनओं में स्वरोजगार हेतु ऋण लेने वाले व्यक्ति का व्यापार विफल हो गया हैं तो क्या उस व्यक्ति को चैक बाउंस कानून के जरिए उत्पीड़ित किया जाना चाहिए ? बैंक एवं फायनेंस कंपनी की मासिक ईएमआई अदा करने में विफल व्यक्ति अचानक एक बड़ी रकम का चैक कैसे जारी कर सकता हैं ? चैक बांउस कानून और ऋण वसूली कानून के बीच लक्ष्मण रेखा क्या हैं, अंतर क्या हैं ?
बैंक एवं वित्तीय संस्थाएं चैक बाउंस कानून को प्राथमिकता ऋण वसूली के लिए देती हैं तो उसका कारण हैं। विचारण न्यायालय का फैसला सरकारी बैंक एवं वित्तीय संस्थाओं के पक्ष में ही जाता हैं, परिवाद में मौजूद वैधानिक वैधानिक दोष, अभिवचनों की कमी, तथ्यों का लोप एवं विरोधाभाष को दर किनार कर दिया जाता हैं बल्कि चैक पर आरोपी के हस्ताक्षर की स्वीकृति को देखा जाता हैं। विचारण न्यायालय से उपधारणाओं का गलत लाभ आसानी से बैंक एवं वित्तीय संस्थाओं को मिल जाता हैं, आवश्यक दस्तावेजो की कमी को दरकिनार कर दिया जाता हैं। बैंक के लिए प्रारंभिक तौर पर परिवाद को साबित करना आवयश्क नहीं हैं, बल्कि आरोपी की चैक पर हस्ताक्षर की स्वीकृति ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। ऋण वसूली का वाद कारण और चैक राशि की वसूली का वाद कारण के बीच का अंतर न्यायालय देखती नहीं हैं। आमतौर पर चैक बहुत पुराना हैं अथवा नया हैं, इसे देखा नहीं जाता हैं क्योंकि सरकारी योजना में ऋण दिया गया हैं और पैसा सरकार का हैं जिसकी वसूली होना आवश्यक हैं।
न्यायालय फैसला करते समय ऋण राशि को महत्व देती हैं, आरोपी की व्यापार में विफलता के कारण पर विचार नहीं करती हैं, कानून का लक्ष्य गौण हो जाता हैं। बैंकिंग व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार को साबित नहीं किया जा सकता हैं। चैक कभी भी जारी किया गया हो चैक की रिक्त प्रविष्टियों को पूर्ण करने के लिए चैक जारीकर्ता की सहमति एवं मौजूदगी आवश्यक नहंी हैं। एक पढ़ा लिखा शिक्षित बेरोजगार युवक जो चैक पर हस्ताक्षर कर सकता हैं लेकिन चैक की प्रविष्टियों को बैंक कर्मचारी असय पूर्ण कर, भुगतान हेतु पेश कर देता हैं तो अदालत को इसमें कुछ भी गलत नजर नहीं आता हैं। आखिर जो चेक पर हस्ताक्षर कर सकता हैं तो चैक की प्रविष्टियों को पूर्ण क्यों नहीं कर सकता हैं, रिक्त चैक जारी करने की क्या मजबूरी थी, अदात को इससे कोई मतलब नहीं हैं। चैक के जरिए बकाया मासिक ईएमआई की वसूली होगी अथवा संपूर्ण ऋण राशि की वसूली होगी ? सरकारी योजनाओं से संबंधित दस्तावेज आम तौर पर परिवाद के साथ पेश नहीं किए जाते हैं, न्यायालय को बैंक गुमराह करने में सफल हो जाता हैं। न्यायालय बैंक, फायनेंस कंपनी और कापरेटिव सोसााईटी की वसूली कर रहीं हैं तो विभिन्न कानून के तहत गठित ऋण वसूली अधिकरण कुछ समय बाद ही बंद करनी पड़ सकती हैं।
भारत सरकार की विभिन्न योजनओं के तहत ऋण प्राप्त करने वाले बेरोजगार युवको को यदि पता होता कि एक दिन चैक बांउस कानून में अभियोजित किया जायेगा और व्यापार में विफलता की कीमत जेल जाकर चुकानी पड़ेगी तो शायद बेरोजगार रहना बेहतर हैं कोई बेरोजगार ऋण लेने का जोखिम नहीं उठाता। अब सवाल यह हैं कि भारत की आम जनता को कैसे मिलेगा आर्थिक न्याय ?