चेक पर हस्ताक्षर स्वीकार करना ही कर्ज साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं, आरोपी को बरी किया

वरिष्ठ अधिवक्ता भरत सेन
चेक बाउंस केस में केरल हाईकोर्ट का अहम फैसला: चेक पर हस्ताक्षर स्वीकार करना ही कर्ज साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं, आरोपी को बरी किया
**तिरुवनंतपुरम, 15 नवंबर 2025**: चेक बाउंस मामले में भारतीय न्याय संहिता (एनआई एक्ट) की धारा 138 के तहत कानूनी रूप से प्रवर्तनीय कर्ज साबित करने के लिए चेक पर हस्ताक्षर स्वीकार करना अकेला पर्याप्त नहीं है। केरल हाईकोर्ट ने इस महत्वपूर्ण टिप्पणी के साथ एक आरोपी को बरी रखने के निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखा है। कोर्ट ने कहा कि आरोपी यदि संभावित बचाव प्रस्तुत करता है, तो बोझ शिकायतकर्ता पर आ जाता है कि वह कर्ज और अपनी वित्तीय क्षमता साबित करे।
मामला थंगम बनाम वी.वी. हरिदासान एंड अदर (सीआरएल. ए नंबर 2311 ऑफ 2007) का है, जिसमें जस्टिस जॉनसन जॉन की एकलपीठ ने अपील खारिज कर दी। शिकायतकर्ता थंगम ने दावा किया था कि आरोपी ने 6 मई 2006 को 50,000 रुपये उधार लिए थे और 9 अगस्त 2006 को चेक जारी किया, जो अपर्याप्त धनराशि के कारण लौट आया। कानूनी नोटिस के बावजूद भुगतान न होने पर धारा 138 के तहत मुकदमा दर्ज हुआ।
ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को बरी कर दिया था, जिसके खिलाफ शिकायतकर्ता ने अपील की। हाईकोर्ट ने एनआई एक्ट की धारा 118 और 139 के तहत उत्पन्न होने वाली धारणाओं (प्रिजम्प्शन) का विश्लेषण किया। कोर्ट ने कहा, “चेक पर हस्ताक्षर स्वीकार करने मात्र से कानूनी रूप से प्रवर्तनीय कर्ज या दायित्व साबित नहीं होता। आरोपी को धारणा को खारिज करने के लिए संदेह से परे साबित करने की जरूरत नहीं; बस संभावित बचाव प्रस्तुत करना पर्याप्त है जो कर्ज के अस्तित्व पर संदेह पैदा करे।”
आरोपी का बचाव था कि उसने चेक रवींद्रन को चिट्टी लेन-देन के लिए सिक्योरिटी के रूप में खाली चेक दिया था, जिसे शिकायतकर्ता ने दुरुपयोग किया। कोर्ट ने इसे सुसंगत और सबूतों से समर्थित पाया, जिससे शिकायतकर्ता पर बोझ आ गया। शिकायतकर्ता कर्ज के स्रोत और अपनी वित्तीय क्षमता साबित करने में असफल रही।
कोर्ट ने श्रद्धा दानेश्वरी ट्रेडर्स बनाम संजय जैन, बसालिंगप्पा बनाम मुदिबासप्पा और एपीएस फॉरेक्स सर्विसेज बनाम शक्ति इंटरनेशनल फैशन लिंकर्स जैसे पूर्व मामलों का हवाला देते हुए कहा कि धारा 138 वित्तीय साधनों की विश्वसनीयता सुनिश्चित करने का नियामक अपराध है, जिसमें धारणाओं का अनुपातिक उपयोग जरूरी है। चंद्रप्पा बनाम कर्नाटक राज्य के फैसले के आधार पर, कोर्ट ने कहा कि अपीलीय अदालतें बरी के फैसले को तभी पलटें जब दो संभावित दृष्टिकोणों में से एक स्पष्ट रूप से गलत हो।
यह फैसला चेक बाउंस मामलों में सबूतों की मजबूती पर जोर देता है और आरोपी के बचाव को मजबूत बनाता है। विशेषज्ञों का मानना है कि इससे भविष्य के मामलों में शिकायतकर्ताओं को अधिक दस्तावेजी सबूत जुटाने पड़ेंगे।
(स्रोत: लेटेस्टलॉज डॉट कॉम)